संसाधनों के अभाव में लेबोरियस से लेबर बनकर रह जा रहे बिहारी, अब युवा नेताओं से उम्मीद

सुशांत साईं सुंदरम | बीते दिनों कानपुर से एक खबर सामने आई कि होली में घर जाने के लिए महाबोधि एक्सप्रेस के 72 सीटों वाले स्लीपर कोच में 400 यात्री चढ़ गए। क्षमता से अत्यधिक भार हो जाने की वजह से कोच की स्प्रिंग दब गई और ट्रेन हिली नहीं।

लॉकडाउन से पहले कुछ बार पटना से रेल मार्ग से पुणे और दिल्ली गया। इस दौरान स्लीपर कोच में सफर करने पर देखा और महसूस किया की कितनी अधिक संख्या में लोग आजीविका के लिए बिहार से बाहर पलायन करने के लिए मजबूर हैं। बिहार से महानगरों तक जाने वाली ट्रेनों की स्थिति अगर आपने प्रत्यक्ष देखी होगी तो इस बात को समझ सकते हैं कि जनरल डब्बों और स्लीपर कोच में कोई अंतर नजर नहीं आता। रिजर्वेशन वालों को सीट तो मिल ही जाता है, लेकिन सामान्य टिकट और वेटिंग टिकट वाले यात्री कोच के भीतर नीचे ही चादर, प्लास्टिक शीट, गमछा, अखबार आदि बिछाकर जैसे–तैसे गंतव्य तक पहुंच जाते हैं। एसी कोच इससे थोड़े बचे इसलिए रह जाते हैं क्योंकि उनमें भीतर ग्लास डोर होता है। लेकिन दरवाजे और शौचालयों के पास के जगहों पर भी लोग यात्रा कर लेते हैं।

अपनी यात्राओं के दौरान यह सब देखने के बाद महसूस हुआ कि राजनीतिक–प्रशासनिक अथवा अन्य जो भी कारण हों, बिहार को 'लेबर सप्लायर स्टेट' बना दिया गया। वो अलग बात है कि यहां के लैबोरियस विद्यार्थी जिन्हें पर्याप्त संसाधन मिल जाता है वे प्रशासनिक सेवाओं में जाने के लिए एड़ी चोटी का जोड़ लगा देते हैं। जिन्हें यह संसाधन नहीं मिल पाता, वे अपने भीतर के 'लैबोरियसनेस' को तिलांजलि देकर महज 'लेबर' बनकर रह जाते हैं।
लॉकडाउन में जब तस्वीरों में देखा कि जत्थों में अनगिनत संख्या में शामिल लोग अपने घरों की ओर बढ़ रहे हैं तो एक तरफ जहां भारत के ही अन्य राज्यों अथवा दुनिया के किसी दूर भूखंड पर रहने वाले लोगों को इतनी बड़ी संख्या में पलायन करने वालों को देख आंखें फटी रह गईं, वहीं मुझे ज़रा भी आश्चर्य नहीं हुआ। कारण कि अपनी रेल यात्राओं के दौरान मैंने स्वयं देखा, और तो और मेरे खुद के गांव–जिले से भी बड़ी संख्या में लोग जीविकोपार्जन के लिए अन्य राज्यों में पलायन कर गए हैं, ऐसे में 'सत्यम किम प्रमाणं, प्रत्यक्षम् किम प्रमाणं!' को शाश्वत महसूस किया।

इन पालायनों के पीछे का सबसे बड़ा कारण यह है कि बिहार में नए कल-कारखानों को स्थापित करने पर समुचित ध्यान तो दिया नहीं गया, वहीं जो पूर्व से पेपर, जूट, चीनी मील आदि संचालित थे, वे भी राजनीतिक-प्रशासनिक अनदेखियों की वजह से धीरे–धीरे बंद होते चले गए।

चिराग पासवान, तेजस्वी यादव, सुमित कुमार सिंह, पुष्पम प्रिया चौधरी, प्रशांत किशोर, श्रेयसी सिंह जैसे बिहार के युवा नेतागण जब बिहार में रोजगार की बात करते हैं तो एक उम्मीद की किरण नजर आती है कि जो बिहारी अपने परिश्रम, क्षमता, ज्ञान और बुद्धि की वजह से अन्यत्र स्थानों को आगे बढ़ाने में सहायक हो रहे हैं, उनके लिए अपने गृह राज्य में ही रोजगार की व्यवस्थाएं हो जाएं तो राज्य के समग्र विकास की राह प्रशस्त हो सकेगी।
(विचार निजी हैं.)

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