मानव जीवन में अध्यात्म का महत्व


आध्यात्म की चर्चाएं तो सभी करते हैं। लेकिन आध्यात्मिकता और आध्यात्म का मानव जीवन के लिए क्या महत्व है इस बात से सभी अनजान हैं। यहाँ तक कि मनुष्य आध्यात्म का अर्थ भी नहीं जानते। अध्यात्म का अर्थ है अपने भीतर के चेतन तत्व को जानना, मानना और दर्शन करना। अर्थात अपने आप के बारे में जानना या आत्मप्रज्ञ होना। गीता के आठवें अध्याय में अपने स्वरुप अर्थात जीवात्मा को अध्यात्म कहा गया है। "परमं स्वभावोऽध्यात्ममुच्यते।"
आत्मा परमात्मा का अंश है यह तो सर्विविदित है। जब इस विषय में अतिशयोक्ति अथवा अविश्वास की स्थिति अधिक क्रियमान होती है तभी हमारी दूरी बढती जाती है और हम विभिन्न रूपों से अपने को सफल बनाने का निरर्थक प्रयास करते रहते हैं जिसका परिणाम नाकारात्मक ही होता है।
यह तो असंभव सा जान पड़ता है कि मिट्टी के बर्तन मिट्टी से अलग पहचान बनाने की कोशिश करें तो कोई क्या कहे? यह विषय विचारणीय है।
अध्यात्म की अनुभूति मानव सहित ब्रह्मांड जे सभी प्राणियों में सामान रूप से निरंतर होती रहती है। साधारणतः कहा जाए तो स्वयं की खोज तो सभी कर रहे हैं, परोक्ष व अपरोक्ष रूप से।
परमात्मा के असीम प्रेम की एक बूँद मानव में पायी जाती है जिसके कारण हम उनसे संयुक्त होते हैं किन्तु कुछ समय बाद इसका लोप हो जाता है और हम निराश हो जाते हैं और इसके बाद सांसारिक बन्धनों में आनंद ढूंढते ही रह जाते हैं। परन्तु इसके बावजूद क्षणिक ख़ुशी ही पाते हैं।
हम क्षणिक संबंधों, क्षणिक वस्तुओं को अपना जान कर उससे आनंद मनाते हैं, जब की हर पल साथ रहने वाला शरीर भी हमें अपना ही गुलाम बना देता है। हमारी इन्द्रियां अपने आप से अलग कर देती है। यह सब इतनी सूक्ष्मता से होता है कि हमें महसूस भी नहीं होता की हमने यह काम किया है!
जब हमें सत्य की समझ आती है तो जीवन का अंतिम पड़ाव आ जाता है व पश्चात्ताप के सिवाय कुछ हाथ नहीं लग पाता। ऐसी स्थिति का हमें पहले ही ज्ञान हो जाए तो शायद हम अपने जीवन में पूर्ण आनंद की अनुभूति के अधिकारी बन सकते हैं। इससे हमारा इहलोक तथा परलोक भी सुधर सकता है।
अब प्रश्न उठता है की यह ज्ञान क्या हम अभी प्राप्त कर सकते हैं? हाँ! हम अभी जान सकते हैं कि अंत समय में किसकी स्मृति होगी, हमारा भाव क्या होगा? हम फिर अपने भाव में अपेक्षित सुधार कर सकेंगे।
गीता के आठवें अध्याय श्लोक संख्या आठ में भी बताया गया है -
"यंयंवापि स्मरन्भावं त्यजत्यन्ते कलेवरम्।
तं तमेवैति कौन्तेय सदा तद्भाव भावितः।।"
इसका अर्थ है - "हे कुंतीपुत्र अर्जुन! यह मनुष्य अन्तकाल में जिस-जिस भी भाव को स्मरण करता हुआ शरीर का त्याग करता है, उस-उस को ही प्राप्त होता है; क्योंकि वह सदा उसी भाव से भावित रहता है।"
एक संत ने इसे बताते हुए कहा था कि सभी अपनी अपनी आखें बंद कर यह स्मरण करें की सुबह अपनी आखें खोलने से पहले हमारी जो चेतना सर्वप्रथम जगती है उस क्षण हमें किसका स्मरण होता है? बस उसी का स्मरण अंत समय में भी होगा। अगर किसी को भगवान् के अतिरिक्त किसी अन्य चीज़ का स्मरण होता है तो अभी से वे अपने को सुधार लें और निश्चित कर लें की हमारी आँखें खुलने से पहले हम अपने चेतन मन में भगवान् का ही स्मरण करेंगे। बस हमारा काम बन जाएगा नहीं तो हम जीती हुई बाज़ी भी हार जायेंगे।
ये विचार मानवी जीवन के कल्याण के लिए समर्पित है।
सुशान्त साईं सुन्दरम
17/02/2018, शनिवार
गिद्धौर, जमुई (बिहार)

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1 Comments

  1. जंहा तक इन बातों से सिद्ध होता है कि मानव को अपने कल्याण के लिए कंही जाने की जरूरत नही उसे अपने ही भीतर ही ध्यान लगाना चाहिये। जिससे उसका उत्थान हो सके । मानव में अनेक शक्ति समाविष्ट है । बस हमे चाहिये थोड़ा सयम । ओशो ने कहा है -मानव की प्रवति ऐसी ही जैसे एक मछली सागर में रह कर पानी की तलाश में जुटी हो ।

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