बड़े झटके की तरह है राष्ट्रपति पद के लिए आडवाणी जी का न चुना जाना

कहा जाता है कि पंजाब आंदोलन को सुलगाने में ज्ञानी जैल सिंह का भी हाथ था। इस आंदोलन के असर को कम करने के लिए तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गाँधी को कोई सिख राष्ट्रपति चाहिए था। ऐसे में उन्होंने ज्ञानी जैल सिंह को राष्ट्रपति पद के लिए चुना जो उस समय इंदिरा सरकार में मंत्रिमंडल में शामिल थे। उन्हें चुने जाने के बाद देशभर में ज्ञानी जी को लेकर चुटकुले बनाये जाने लगे। स्थिति तब और भी गंभीर हो गई जब राष्ट्रपति चुने जाने के बाद उन्होंने कहा कि मैडम चाहें तो मैं झाड़ू लगाने को भी तैयार हूं।

वर्तमान सरकार के दल भाजपा में वरिष्ठता के आधार पर शिखर पर बैठे लालकृष्ण आडवाणी अथवा मुरली मनोहर जोशी को राष्ट्रपति पद के लिए चुना जा सकता था। लेकिन मोदी-शाह की जोड़ी ने दलितों को लामबंद करते हुए श्री रामनाथ कोविंद को राष्ट्रपति पद के लिए चुना। कोरी जाति से आने वाले श्री कोविंद को इस पद के लिए चुनकर भाजपा ने 2019 में अपनी पैठ बनाये रखने का सार्थक प्रयास किया है। इसके साथ ही बिहार सहित यूपी में दलित वोटबैंक में भी सेंध लगाने का प्रयास किया है। श्री रामनाथ कोविंद वर्तमान में बिहार के राज्यपाल हैं और यहाँ के सीएम नीतीश कुमार से भी उनकी अच्छी तालमेल है। मूलरूप से यूपी के कानपूर के रहने वाले श्री कोविंद को राष्ट्रपति पद के लिए चुनकर पिछले पांच वर्षों के दौरान यूपी की दलित नेत्री सुश्री मायावती के लगातार टूटते जनाधार को देखते हुए भाजपा ने वहां के दलितों को अपने पक्ष में करने की भी कोशिश की है। इस वर्ष के अंत तक गुजरात में विधानसभा के चुनाव होने हैं और वहां की राजनीतिक उथल-पुथल में भाजपा के हाथ से फिसलते पाटीदारों को फिर से अपनी ओर लाने के लिए मोदी-शाह ने अच्छी कोशिश की है। इन सभी से परे अपने ही पार्टी में अनुभवी और वयोवृद्ध नेता, आडवाणी-जोशी को दरकिनार कर दिया जाना भाजपा के निजी राजनीतिक स्वार्थ इंगित करता है। जहाँ तक बात नव-सामाजवादियों को रोकने का है तो वर्तमान परिदृश्य में मोदीजी की कुर्सी हिलती हुई नहीं दिखाई दे रही है। उनका एक और टर्म आना लगभग तय माना जा रहा है। चूँकि विरोधियों के पास नरेंद्र मोदी के खिलाफ प्रधानमंत्री पद का कोई प्रबल उम्मीदवार नहीं है तो ऐसे में जनता मोदीजी को एक बार फिर से शिरोधार्य कर सकती है। आडवाणी और जोशी, दोनों ही वरिष्ठ नेता हिंदूवादी रहे हैं। आडवाणी जी को वरिष्ठता के आधार पर राष्ट्रपति पद के लिए चुनकर उनके सकारात्मक पहलुओं को दिखाते हुए विपक्ष को एकजुट किया जा सकता था। शिवसेना भी हिन्दुवाद पर समर्थन देने को तैयार है। जहाँ एक ओर अन्य पार्टियां एवं राजनेता दलित राग बनाये रहते हैं ऐसे में आरक्षण के पैरोकार एवं सवर्ण विरोधी होने के बावजूद भी आडवाणी जी को राष्ट्रपति पद के लिए चुनकर मोदी-शाह अपनी एक अलग छवि बना सकते थे। देश की जनता का भी एक बड़ा हिस्सा यह मान बैठा था कि मंत्रिमंडल में जगह न मिलने पर आडवाणी जैसे बड़े अनुभवी हस्ती को नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली भाजपा की सरकार राष्ट्रपति पद से नवाजेगी। लेकिन ऐसा नहीं किया जाना एक बड़ा झटका की तरह है। 

(सुशान्त साईं सुन्दरम)
20/06/2017, मंगलवार

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