प्रेम और भरोसा



प्रेम की कोई सीमा नहीं होती। यह तो असीमित होता है। जाती, भाव, बंधन, प्रान्त, रंग, उम्र सबसे परे। प्रेम होता है लेकिन उसके रूप भिन्न-भिन्न होते हैं। ठीक उसी प्रकार जैसे परमपिता परमेश्वर सबका मालिक एक होने के बावजूद भी लोग अपनी आस्था के अनुरूप अलग-अलग देवी-देवताओं की पूजा करते आ रहे हैं। जिस प्रकार परमात्मा को हम देख नहीं सकते, केवल उसके चमत्कार एवं मौजूदगी को महसूस कर सकते हैं, उसी प्रकार प्रेम को भी केवल महसूस किया जा सकता है।

प्रेम के लिए भरोसा होना सबसे मत्वपूर्ण पहलु है। आप किसी से भी तभी प्रेम कर सकते हैं जब आप उनपर भरोसा कर सकते हैं। किसी भी रिश्ते की बुनियाद भरोसे और प्रेम से ही डाली जा सकती है। यहाँ तक की मित्रता ये लिए भी भरोसा और प्रेम आवश्यक है इसलिए जो लोग भरोसेमंद नहीं होते दूसरे लोग स्वतः उनसे दूरियां बनाने लगते हैं।
स्त्री-पुरुष का प्रेम भी भरोसे की नींवसे ही शुरू होता है। लेकिन जब इन दोनों में से कोई एक अपने साथी का भरोसा तोड़ता है तो दोनों मित्रवत भी नहीं रह पाते। ऐसे में धोखा खाये इंसान की प्रेम से आसक्ति हो जाती है और वह चाहकर भी किसी पर भरोसा अथवा प्रेम नहीं कर सकता। साथ ही पूर्व में छोड़ कर गए साथी से खुलकर नफरत या प्रेम भी नहीं कर पाता। अंदरुनी कश्मकश के इस पड़ाव पर इंसान निराशा से घिरकर अवसादग्रस्त हो जाता है।
कुछ मामलों में अगर पूर्व का साथी वापस पुराने प्रेम के पास लौटता है तो काफी जटिल स्थिति होती है। एक बार किसी से स्वतंत्र होने होने का अर्थ है अतीत से मुक्ति पाना। ऐसे में बेहतर इसी में है कि अंधकार और अज्ञात में ना जाकर जीवन को नई दिशा दी जाए। किसी का भरोसा एक बार तोड़ने के बाद उसे फिर से बनाना कठिन है। जब भरोसा ही फिर से नहीं बन सकता तो प्रेम को पुनर्जागृत करने की कल्पना भी व्यर्थ है।

~सुशान्त साईं सुन्दरम्
गिद्धौर | 17/11/2016 (गुरुवार)

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